नई दिल्ली
केंद्र सरकार 16 जून को अगली जनगणना को लेकर अधिसूचना जारी कर सकती है। वैसे जमीन पर 'जनगणना-2027' की प्रक्रिया 2026 में शुरू होगी और इस तरह से इसमें छह साल की देरी होगी, जिसके लिए मुख्य तौर पर कोविड महामारी को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि, जनगणना का काम तब जो लटका, वह लटकता ही चला गया। इस बार की जनगणना के भरोसे राजनीतिक तौर पर कम से कम दो अहम चीजें लटकी हुई हैं। एक तो कानून के मुताबिक 2026 के बाद होने वाली जनगणना को ही आधार मानकर निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन होना है। क्योंकि, देश में आबादी के हिसाब से जनप्रतिनिधियों की संख्या काफी कम है और निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या के आंकड़ों में भी बड़ी असमानताएं उभर रही हैं। दूसरी तरफ संसद ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% महिला आरक्षण की व्यवस्था की है, यह भी तभी संभव है जब निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन हो। लेकिन, मौजूदा परिस्थितियों में कहना मुश्किल है कि यह सब 2029 के लोकसभा चुनावों के लिए संभव हो सकेगा।
केंद्र सरकार की घोषणा के अनुसार 1 अप्रैल, 2026 से जनगणना शुरू हो सकती है। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी, इस हिसाब से यह काम 2021 में ही हो जाना था। सरकार ने नई जनगणना के लिए 1 मार्च, 2027 को रेफ्रेंस डेट के रूप में तय किया है। मतलब, जनगणना के आंकड़ों के लिए यही तारीख आधार होगी। हालांकि, अभी यह नहीं बताया गया है कि जनगणना के आंकड़े कब जारी होंगे। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या जनगणना से जुड़े सभी आवश्यक आंकड़े 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले आ जाएंगे? अगर सरकारी सूत्रों की मानें तो इसका जवाब है नहीं। मसलन, एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा है कि जातिगत आंकड़े तीन साल में जारी किए जा सकते हैं। हालांकि, यह संभावना नहीं है कि जातिगत गणना ही आरक्षण का आधार बनेगी।
पिछली जनगणना में आंकड़े जारी होने में करीब दो साल लगे
अगर पिछली जनगणना को देखें तो अंतिम जनसंख्या गणना के आंकड़े जारी होने में लगभग 2 साल लग गए थे। हालांकि, यह देखने वाली बात है कि क्या सरकार इसकी कोई तारीख बताती है, जब जनगणना के आंकड़े आने की संभावना है। क्योंकि, बेहतर तकनीक और डिजिटल डेटा के इस्तेमाल से अब जनगणना में उतना वक्त लगने की संभावना नहीं है, जितना की पहले लगा करता था।
पिछले परिसीमन में लगा था करीब साढ़े तीन साल का वक्त
मान लिया जाए कि जनगणना के आंकड़े पहले के मुकाबले जल्द भी आ जाएं और परिसीमन आयोग 2029 के चुनाव से पहले अपना काम शुरू भी कर देता है, तो भी इसे परिसीमन के काम में लंबा वक्त लग सकता है। जैसे 2001 की जनगणना के बाद 2002 में परिसीमन आयोग बना था। उसने उसी जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाया और इसके गठन से लेकर काम पूरा करने में मोटे तौर पर साढ़े तीन साल लग गए और 2007 में जाकर काम पूरा हुआ, जो कि 2008 से प्रभावी हुआ। मतलब, 2009 के लोकसभा चुनावों इसकी ओर से किया गया बदलाव अमल में आ पाया।
परिसीमन में सीटें घटने को लेकर आशंकित हैं दक्षिणी राज्य
अगर राजनीतिक तौर पर देखें तो इस बार के परिसीमन को लेकर दक्षिण भारतीय राज्य पहले से ही चिंतित बैठे हुए हैं। उनको डर है कि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण पर बहुत काम किया है और उसे काफी नियंत्रण में रखा है। लेकिन, अगर आबादी परिसीमन की आधार बनी तो उनकी लोकसभा सीटें घट सकती हैं और बिहार और यूपी जैसे राज्यों को इसका फायदा ज्यादा सीटों के तौर पर मिल सकता है। इसलिए, परिसीमन के काम को लेकर भारी विरोध भी दिख रहा है।
सरकार को यह भी देखना है कि कहीं यह मुद्दा उत्तर और दक्षिण भारतीय राज्यों में बड़ी विवाद की वजह न बन जाए। केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार है, जो आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी दल टीडीपी के समर्थन पर टिकी है। ऐसे में मोदी सरकार के लिए इसपर तेजी से बढ़ना राजनीतिक रूप से भी आसान नहीं होगा। इन सारे हालातों को देखने के बाद यही लगता है कि नई जनगणना के आंकड़े 2034 के लोकसभा चुनावों से पहले काम में आना मुश्किल है।