नई दिल्ली, जयपुर
राजस्थान कांग्रेस में सचिन पायलट की बगावत के हालात में भाजपा को लाभ तो दिख रहा है, लेकिन वह अपनी भावी रणनीति वसुंधरा राजे को भरोसे में लेकर ही तैयार करेगी। दरअसल गहलोत सरकार को गिराना अभी भी मुश्किल है और उसके बाद सरकार बनाना और भी कठिन। भाजपा केवल सरकार गिराकर स्थिति को और जटिल नहीं बनाना चाहती है।
कांग्रेस के भीतर पद और प्रतिष्ठा गंवा चुके पायलट भी अभी तक भाजपा के साथ आने की हिम्मत नहीं जुटा सके हैं। अब जब तक वह अपने भविष्य के बारे में फैसला नहीं करते हैं, भाजपा भी कोई कदम नहीं उठाएगी। भाजपा पिछले दो दिनों से सचिन को पार्टी में आने के संकेत दे रही थी, लेकिन उन्होंने भाजपा से दूरी बनाए रखने की बात कह कर मामले को फिलहाल टाल दिया है।
राजस्थान की आगे की राजनीति जयपुर में होनी है और उसमें भाजपा को वसुंधरा राजे की पूरी सहमति और सहयोग जरूरी है। विधानसभा के अंक गणित में भाजपा को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस में बड़ी टूट के साथ कई विधायकों के इस्तीफों की जरूरत होगी। साथ ही अपनी पार्टी को भी एकजुट रखना होगा।
नेतृत्व का भी फंसेगा पेंच
भाजपा विधायकों में अधिकांश वसुंधरा राजे के समर्थक हैं और उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। एक समस्या यही है कि पायलट अगर सरकार गिरा भी लेते हैं और भाजपा मदद करती है तो भाजपा की नई सरकार का नेतृत्व कौन करेगा? वसुंधरा राजे को लेकर पहले भी केंद्रीय नेतृत्व असहज रहा है और नई परिस्थिति में उसके सामने फिर वही समस्या खड़ी होगी। इन सवालों से बचने के लिए वह फिलहाल विधानसभा के अगले सत्र इंतजार करेगा और उस दौरान जो भी स्थिति बनेगी उसके अनुसार फैसला लिया जाएगा। तब तक पायलट अपना फैसला ले चुके होंगे और कांग्रेस के भीतर का घमासान साफ हो चुका होगा।
सहज नहीं रहे वसुंधरा और केंद्रीय नेतृत्व के रिश्ते
भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच पिछले विधानसभा चुनाव के समय से ही बहुत अच्छे रिश्ते नहीं रहे हैं। चुनाव के पहले प्रदेश अध्यक्ष तय करने के मुद्दे पर काफी गतिरोध रहा था। तब वरिष्ठ नेता ओम प्रकाश माथुर ने बीच का रास्ता निकालते हुए मदन लाल सैनी को प्रदेश अध्यक्ष बनवाया था, जबकि केंद्रीय नेतृत्व गजेंद्र सिंह शेखावत के पक्ष में था। इसके पहले भी कई मौकों पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच तनातनी रही है और हर बार वसुंधरा राजे की ही चली।