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अबॉर्शन चाहने वाली रेप पीड़िताओं से आईडी प्रूफ मांगने पर जोर न दें अस्पताल: दिल्ली हाईकोर्ट

नई दिल्ली

दिल्ली हाई कोर्ट ने दुष्कर्म पीड़िताओं के गर्भपात (MTP) को लेकर अस्पतालों के लिए जरूरी दिशा-निर्देश जारी किए हैं. कोर्ट ने साफ कहा है कि अस्पताल अदालतों द्वारा आदेशित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) मामलों में निदान परीक्षण या अल्ट्रासाउंड की मांग करने वाली नाबालिग बलात्कार पीड़ितों से पहचान प्रमाण की मांग नहीं कर सकते हैं.

एक महत्वपूर्ण फैसले में जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने जोर दिया कि अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों को यौन उत्पीड़न के मामलों में संवेदनशील और उत्तरदायी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, खासकर नाबालिग लड़कियों से जुड़े मामलों में. कोर्ट ने जोर देकर कहा कि ऐसे मामलों को विशेष रूप से संभालने की जरूरत होती है और कठोर प्रोटोकॉल समय पर चिकित्सा देखभाल में बाधा नहीं डालनी चाहिए.

पहचान पत्र न होने पर नाबालिग की जांच में देरी

कोर्ट ने यह आदेश एक 17 साल की नाबालिग पीड़िता के मामले की सुनवाई के दौरान दिए गए, जिसे एम्स अस्पताल में गर्भपात के लिए ले जाया गया था लेकिन पहचान पत्र न होने की वजह से उसकी अल्ट्रासाउंड जांच में 13 दिन की देरी हुई. दरअसल पुलिस की मौजूदगी के बावजूद डॉक्टरों ने यह कहकर अल्ट्रासाउंड करने से इनकार कर दिया कि पीड़िता के पास कोई पहचान पत्र नहीं है. इस कारण 13 दिन की देरी हुई और जब अल्ट्रासाउंड किया गया तो बताया गया कि गर्भावस्था 25 हफ्तों से अधिक हो चुकी है. इसके बाद डॉक्टरों ने कहा कि मेडिकल बोर्ड की जांच अब कोर्ट के आदेश के बिना नहीं हो सकती.

‘पीड़िता का पहचान पत्र नहीं मांग सकते अस्पताल’

हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जब कोई दुष्कर्म पीड़िता (चाहे नाबालिग हो या बालिग) पुलिस के साथ अस्पताल लाई जाती है या कोर्ट या चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (CWC) के निर्देश पर लाई जाती है, तो अस्पताल या डॉक्टर उसकी पहचान के लिए पहचान पत्र की मांग नहीं कर सकते. ऐसी स्थिति में पुलिस अधिकारी द्वारा की गई पहचान ही पर्याप्त मानी जाएगी.

बलात्कार पीड़िता की याचिका पर सुनवाई

कोर्ट ने कहा कि चिकित्सा प्रोटोकॉल केवल कानूनी आवश्यकताओं का पालन करने तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि उन्हें सहानुभूति, व्यावहारिक सोच, और यौन हिंसा के पीड़ित लोगों द्वारा झेली जाने वाली कठिनाइयों की गहरी समझ से भी निर्देशित होना चाहिए. दरअसल कोर्ट एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने चिकित्सीय गर्भपात की मांग की थी.

 

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