नई दिल्ली
राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् को 150 वर्ष पूरे होने पर संसद में चल रही बहस के बीच जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा है कि मुसलमानों को मर जाना स्वीकार है लेकिन शिर्क नहीं। उन्होंने कहा कि किसी के वंदे मातरम् पढ़ने या गाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन मुसलमान केवल एक अल्लाह की इबादत करता है और अपनी इस इबादत में किसी दूसरे को शरीक नहीं कर सकता।
एक बयान जारी करते हुए मदनी ने कहा कि वंदे मातरम् की कविता की कुछ पंक्तियां ऐसे धार्मिक विचारों पर आधारित हैं जो इस्लामी आस्था के खिलाफ हैं। विशेष रूप से इसके चार अंतरों में देश को 'दुर्गा माता' जैसी देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उसकी पूजा के शब्द प्रयोग किए गए हैं, जो किसी मुसलमान की बुनियादी आस्था के खिलाफ हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) देता है। इन अधिकारों के अनुसार किसी भी नागरिक को उसके धार्मिक विश्वास के विरुद्ध किसी नारे, गीत या विचार को अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
मदनी ने कहा कि वतन से मोहब्बत करना अलग बात है और उसकी पूजा करना अलग बात है। मुसलमानों को इस देश से कितनी मोहब्बत है इसके लिए उन्हें किसी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है। आजादी की लड़ाई में मुसलमानों और जमीयत उलमा-ए-हिंद के बुजुर्गों की कुर्बानियां और विशेष रूप से देश के बंटवारे के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद की कोशिशें दिन की रोशनी की तरह स्पष्ट हैं। आजादी के बाद भी देश की एकता और अखंडता के लिए उनकी कोशिशें भुलाई नहीं जा सकतीं। हम हमेशा कहते आए हैं कि देशभक्ति का संबंध दिल की सच्चाई और अमल से है, न कि नारेबाजी से।
मदनी ने कहा कहा कि 'वंदे मातरम्' बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंद मठ' से लिया गया एक अंश है। इसकी कई पंक्तियां इस्लाम के धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ हैं, इसलिए मुसलमान इस गीत को गाने से परहेज करते हैं। 'वंदे मातरम्' का पूरा अर्थ है- मां, मैं तेरी पूजा करता हूं।' यह शब्द स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि यह गीत हिंदू देवी दुर्गा की प्रशंसा में लिखा गया था, न कि भारत माता के लिए। वंदे मातरम् गीत मां के सामने झुकने और उसकी पूजा करने की बात करता है, जबकि इस्लाम अल्लाह के अलावा किसी के सामने झुकने और पूजा करने की अनुमति नहीं देता। हम एक ईश्वर को मानने वाले हैं, हम उसके अलावा किसी को भी न अपना पूज्य मानते हैं और न ही किसी के सामने सजदा करते हैं। इसलिए हम इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं कर सकते। मर जाना स्वीकार है, लेकिन शिर्क (अल्लाह के साथ किसी साझी) स्वीकार नहीं है। मरेंगे तो इस्लाम पर और जिएंगे तो इस्लाम पर, इंशा अल्लाह।



